मनुष्य
स्वभावत: बहुत ही सरल है किंतु अपने केन्द्र से भटकने के एवज बेचैनी में
कई रास्तों को बनाता चला जाता है और अंतत: खो जाता है, खो जाता है वहां
जहां से उसे खुद की आवाज़ भी सुनाई नहीं देती. और दुनियां को एक बाज़ार बना
खुद भी बाज़ार होता चला जाता है.
वर्तमान की सारी व्यवस्था एक संघर्ष है. और इस संघर्ष को और बढाने हेतु बाज़ार में अनगिनत किताबें मौज़ूद हैं, "बेहतर कैसे जीएं" "अमीर कैसे बने" "व्यक्तित्व कैसे निखारें" जैसी ना जाने कितनी किताबें. ये खतरनाक लेखक हैं जो सिखाते हैं कि हम एक दुसरे को कैसे पछाडें, हम मनुष्यता को त्याग कर मशीन कैसे बनें. और ये सबकुछ ज्यादा से ज्यादा भोग कैसे करें ताकि खुश रहा जाए सिखाते हैं और यहां खुशी का पैमाना ये होता है कि "दुसरों से ज्यादा". बस यहीं से संघर्ष पैदा होता है, और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अपराध की पृष्टभूमी तैयार होनी शुरु हो जाती है. और ये सब सिर्फ़ इस तलाश में कि किसी तरह मैं खुश हो जाऊं. मगर जब रास्ता ही उल्टा हो तो मंज़िल कहां? फ़िर तो बस जो हाथ आयेगा वो "मृगतृष्णा" के सिवा कुछ ना होगा.
कुछ लोग सवाल करते हैं कि " क्या जो दिखाई देती है वो खुशी नही? लोग तो सचमुच खुश दिखाई देते हैं. यहां ये बहुत स्पष्ट है कि जो भी है वो कन्डिशनल खुशी है, पर आधारित खुशी, व्यवस्था आधारित खुशी, ऐसा होगा तो मैं खुश होऊंगा, ऐसी व्यवस्था होगी तो मुझे खुशी मिलेगी, तब फ़ौरन परिणाम का खतरा भी दिखाई देता है, यदि ऐसा नहीं हुआ ? यदि वांछित वयवस्था नहीं हुई ? तो जवाब सामने है " मैं खुश नहीं रह पाऊंगा". तो ये उधार की खुशी हुई, ज़िंदगी मुझे उधार देती रहे. किंतु जो उधार देता है बहुत संभावना है कि वो वापस भी ले ले. तो फ़िर क्या? हममें से बहुतेरे इसे नियती मान कर समझौते की ज़िंदगी जीते रहते हैं. और फ़िर हममें से ही कोई ज्यादा पागल निकल पडता है खोज में कि ये खुशी अनंत क्युं नहीं हो सकती. ये खुशी आनंद में तब्दिल क्युं नहीं हो सकती?. और जान लो कि यदि ऐसे पागल ना हों तो मनुष्यता का उत्थान असंभव है. इन्हे पागल समझो या प्रभुत्व को उपलब्ध इन्हे इससे क्या? ये तो निकल जाते हैं धोखे की ज़िंदगी से और जो ऐसा नहीं कर पाते इन्हे पागल घोषित कर किसी तरह समाज में अपना आस्तित्व बचाने की कोशिश में लग जाते हैं. मगर जान लो कि वास्तव में यही विक्षिप्त हैं. और जैसे-जैसे तुम आनंद में डुबने लगते हो फ़र्क खुद ही दिखाई देने लगता है. मगर निर्णय तुम्हारा है कि तुम्हे क्या चाहिए. क्युंकि अमृत पर अधिकार सभी का है भाग्य कौन जाने...
वर्तमान की सारी व्यवस्था एक संघर्ष है. और इस संघर्ष को और बढाने हेतु बाज़ार में अनगिनत किताबें मौज़ूद हैं, "बेहतर कैसे जीएं" "अमीर कैसे बने" "व्यक्तित्व कैसे निखारें" जैसी ना जाने कितनी किताबें. ये खतरनाक लेखक हैं जो सिखाते हैं कि हम एक दुसरे को कैसे पछाडें, हम मनुष्यता को त्याग कर मशीन कैसे बनें. और ये सबकुछ ज्यादा से ज्यादा भोग कैसे करें ताकि खुश रहा जाए सिखाते हैं और यहां खुशी का पैमाना ये होता है कि "दुसरों से ज्यादा". बस यहीं से संघर्ष पैदा होता है, और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अपराध की पृष्टभूमी तैयार होनी शुरु हो जाती है. और ये सब सिर्फ़ इस तलाश में कि किसी तरह मैं खुश हो जाऊं. मगर जब रास्ता ही उल्टा हो तो मंज़िल कहां? फ़िर तो बस जो हाथ आयेगा वो "मृगतृष्णा" के सिवा कुछ ना होगा.
कुछ लोग सवाल करते हैं कि " क्या जो दिखाई देती है वो खुशी नही? लोग तो सचमुच खुश दिखाई देते हैं. यहां ये बहुत स्पष्ट है कि जो भी है वो कन्डिशनल खुशी है, पर आधारित खुशी, व्यवस्था आधारित खुशी, ऐसा होगा तो मैं खुश होऊंगा, ऐसी व्यवस्था होगी तो मुझे खुशी मिलेगी, तब फ़ौरन परिणाम का खतरा भी दिखाई देता है, यदि ऐसा नहीं हुआ ? यदि वांछित वयवस्था नहीं हुई ? तो जवाब सामने है " मैं खुश नहीं रह पाऊंगा". तो ये उधार की खुशी हुई, ज़िंदगी मुझे उधार देती रहे. किंतु जो उधार देता है बहुत संभावना है कि वो वापस भी ले ले. तो फ़िर क्या? हममें से बहुतेरे इसे नियती मान कर समझौते की ज़िंदगी जीते रहते हैं. और फ़िर हममें से ही कोई ज्यादा पागल निकल पडता है खोज में कि ये खुशी अनंत क्युं नहीं हो सकती. ये खुशी आनंद में तब्दिल क्युं नहीं हो सकती?. और जान लो कि यदि ऐसे पागल ना हों तो मनुष्यता का उत्थान असंभव है. इन्हे पागल समझो या प्रभुत्व को उपलब्ध इन्हे इससे क्या? ये तो निकल जाते हैं धोखे की ज़िंदगी से और जो ऐसा नहीं कर पाते इन्हे पागल घोषित कर किसी तरह समाज में अपना आस्तित्व बचाने की कोशिश में लग जाते हैं. मगर जान लो कि वास्तव में यही विक्षिप्त हैं. और जैसे-जैसे तुम आनंद में डुबने लगते हो फ़र्क खुद ही दिखाई देने लगता है. मगर निर्णय तुम्हारा है कि तुम्हे क्या चाहिए. क्युंकि अमृत पर अधिकार सभी का है भाग्य कौन जाने...
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