Sunday 16 June 2013

जीवन की खोज क्या है?

जीवन की खोज क्या है? क्या जीवन सचमुच इसी का नाम है कि जिए और बस मर गए? सबसे पहले तो बता दुं कि अगर ये सवाल भीतर से उठता हो तो शुभ है क्युंकि इस सवाल ने ही मंजिल की दिशा तय कर दी. बहुत अफ़सोस की बात है कि हम में से ज्यादातर की जिंदगी बिना इस सवाल के ही गुजर जाती है, और हो भी क्युं नहीं इंसान शुरु से पलायन वादी रहा है, वो सब करेगा सिवाए अपनी तलाश के. करीब ५००-६०० साल पहले ऐसी दशा नहीं थी, इंसान के लिये २४ घंटे ज्यादा होते थे, वक्त ही वक्त था. किंतु जिसे आज विकास कहते हैं उस विकास ने इंसान की हत्या कर दी, और कोई जिम्मेदार भी नहीं सिवाए इंसान के उसकी व्यवस्था में दोष है. और बाहर देखने की प्रवृति ने उसके भीतर जाने के मार्ग की याद भी धुंधला दी और फ़िर जो व्यर्थ है बनिस्पद उसके जो एकमात्र लक्ष्य था जीवन का उसे ही बटोरने सहेजने के भ्रम में डाल दिया. मेरे एक मित्र हैं राजेश कुट्टन उनके पिता को सही मायने में संत कहुंगा मैं. गजब के अनुभव हैं उनके, एक बातचीत के दौरान उन्होने कहा था कि "जानते हो फ़ार्म की मुर्गियों को ज्यादा किमत में बेचने का नुस्खा फ़ार्म मालिकों ने ये निकाला कि मुर्गियों के सामने वो बडे-बडे बल्ब लगा देते हैं जिससे मुर्गियों को कुछ सुझ नहीं पडता और वो सिर्फ़ पागलों की तरह दाने खाती हैं और औसत से ज्यादा कम समय में ज्यादा वजन की हो जातीं है जिन्हे बेचकर वो कम समय में ज्यादा मुनाफ़ा कमा लेते हैं, इंसानों के साथ भी कुछ ऐसा ही है इंसानों ने खुद ही अपने सामने बडे-बडे बल्ब लगा रखे हैं जिससे उन्हे कुछ सुझता नहीं फ़िर चाहे वो बल्ब रुपयों के हों, आलिशान बंगलों, गाडियों के हों या फ़िर बेहतर सुविधाओं के हों क्या फ़र्क पडता है."
खैर जैसा मैने कहा कि ये सवाल उठना भी बडी बात है, क्युं कि जो समझदार है, जो जीवन की बारिकीयां देख सकता है उसी को समझ भी आता है कि जीवन अगर दुख है तो कहीं ना कहीं सुख का छोर भी होगा. और वो छोर बाहर नहीं भीतर की तरफ़ है, बाहर का छोर दुख, संताप, प्रतिस्पर्धा, पश्चाताप से भरा होगा किंतु भीतर के छोर में आनंद और पुर्णता छिपी है. आज सिर्फ़ छोर तक ही, अगले पोस्ट में मार्ग पर चर्चा होगी.
.साधु

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