दुनियां भर के बुद्धिजिवियों तथा मनोवैग्यानिकों ने बार-बार ये संदेश दिया कि “उदास रहना दुखी रहना सबसे बडा दुख है, बस खुश रहो” मगर जब सामने दुख दिखाई दे रहा हो तो खुश कैसे रहें इस सवाल के जवाब से सब बचते दिखाई देते रहे हैं. मगर मेरा ऐसा मानना है कि दुख की तरह खुशी भी घातक है जब तक की वो आनंद ना बन जाए. बल्कि अवस्थाओं की ही बात है अगर तो इन दोनों के बनिस्पद शांति अवस्था ज्यादा मुल्यवान तथा अर्थ पुर्ण है. दुखी रहना या खुश रहना ये दोनो ही उन्माद है. ठिक वैसे ही जैसा कि आपने दही को जमते देखा होगा, यदि आप हर थोडी देर में दही के बर्तन को हिला कर देखेंगे कि वो जमा या नहीं तो फ़िर दुध का दही में रुपांतरण असंभव है, बल्कि ऐसा करने से ये होगा कि तब ना दुध बचेगा ना दही, और ये दोनो दुख तथा सुख भी यही करते हैं आत्मा की सघनता को हिलाकर नष्ट करते हैं. और जिसे दही का स्वाद चखना हो उसे ज़रा सब्र की ज़रूरत तो पडेगी ही. शांत रहना थीर रहना ज़रूरी है. कभी-कभी कोई कहता है कि जाने क्युं आज उदास सा लगता है, या जाने क्युं आज काफ़ी अच्छा और खुश महसूस कर रहा हुं वैसे ही बेवजह शांत हो जाने की कला को विकसित करने की आवश्यकता है. और जितनी थीरता आयेगी उतना ही मार्ग स्पष्ट दिखाई देगा, ध्यान रहे मैं थीरता को मंज़िल नहीं कह रहा बल्कि सही मार्ग सपष्टता की बात कर रहा हुं. उसके बाद कुछ प्रयत्न हैं और विरोधाभाश ये है कि ये सारे प्रयत्न तुम्हारे सारे प्रयत्नों को गिरा देने के लिये हैं. प्रयत्न ये करना है कि कोई प्रयत्न ना रहे बस गहराता आनंद हो स्वर्ग हो. जिसे स्वर्ग समझा है वो यहीं हो अभी हो, इसी क्षण हो.
आज एक सामान्य सा प्रयोग बताता हुं जो सामान्य होते हुए भी असाधारण है, जिसे कई बुद्धत्व को उपलब्ध प्रबुद्धों ने आजमाया है. और वो है “बस रुक जाओ” तात्पर्य ये है कि जो कुछ कर रहे हो अलमारी से किताबें निकाल रहे हो, या एक कमरे से दुसरे कमरे में जा रहे हो, कुछ लिख रहे हो या फ़िर कोई अन्य काम जिसमें बाधा ना हो अचानक जैसे ही ये सुत्र स्मरण हो बस रुक जाओ, रुक जाओ कुछ क्षण के लिये, शुरु में रुकना आसान होगा, ठहरना मुश्किल लेकिन इस ठहरने का अभ्यास बढाना है. धीरे-धीरे जब ठहराओ में वृद्धि होने लगेगी, स्वयं का बोध गहराने लगेगा.
. आज बस इतना ही.
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